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सुबोधानंद सादगी के प्रतीक – मुक्तिनाथानंद

रामकृष्ण मठ में मनाई सुबोधानन्द की जयंती 

 

 लखनऊ, भारत प्रकाश न्यूज़। राजधानी के निराला नगर स्थित रामकृष्ण मठ में वैदिक मन्त्रोंच्चार के साथ स्वामी सुबोधानंद की जयंती मनाई गई। बुधवार को सुबह शंखनाद के साथ मंगल आरती, वैदिक मंत्रोच्चारण, नारायण शुक्तम का पाठ और ’जय जय रामकृष्ण भुवन मंगल गायन करते हुए मठ अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्द की अगुवाई में शुभारम्भ किया गया। जिसमें मुख्य मंदिर में संध्यारति के उपरांत स्वामी पारगानन्द के नेतृत्व में स्वामी सारदानन्द द्वारा रचित रामकृष्ण स्तोत्रम’ का पाठ किया।

वहीं स्वामी मुक्तिनाथानन्द ने स्वामी सुबोधानन्द की जीवनी पर व्याख्यान देते हुए कहा कि सुबोधानंद का पूर्व आश्रम का नाम था सुभाष चंद्र घोष। उनका जन्म 8 नवंबर 1867 को कलकत्ता में एक धार्मिक परिवार में हुआ था। वे शंकर घोष के परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो कलकत्ता के ठंठनिया में प्रसिद्ध काली मंदिर के मुख्य सेवक थे। वह सन् 1885 के अगस्त माह में भगवान रामकृष्ण से मिले। उन्होंने सप्ताह के मंगलवार और शनिवार को गुप्त रूप से गुरु के पास जाना शुरू किया और उनसे आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को सीखा।

उन्होंने बराहनगर मठ में शामिल होकर संन्यास की शपथ लेने के बाद स्वामी सुबोधानन्द के नाम से प्रचलित हो गए ।

स्वामी विवेकानन्द ने 30 जनवरी 1901 को रामकृष्ण मठ बेलूर मठ का एक ट्रस्ट डीड बनाया और ग्यारह भिक्षुओं को ट्रस्टी के रूप में नामित किया। जिसमे स्वामी सुबोधानंद उनमें से एक थे। उन्होंने कई तीर्थ स्थलों की यात्रा की और कई बार पूर्वी बंगाल का दौरा किया और इच्छुक भक्तों को दीक्षा दी। सन् 1908 में चिल्का क्षेत्र भारत के पूर्वी तट में भयंकर अकाल पड़ा। स्वामी सुबोधानन्द को स्वामी शंकरानन्द के साथ राहत कार्य के लिए भेजा गया। सुबोधानन्द ने राहत कार्य में अपना दिल और आत्मा लगा दी। उन्होंने अपने भोजन या आराम की परवाह किए बिना दिन-रात काम किया, और परिणामस्वरूप बीमार हो गये। वहीं श्री रामकृष्ण उनके सामने प्रकट हुए और कहा अब आपको यह काम नहीं करना पड़ेगा। बल्कि सुबोधानन्द ने लोगों की स्थिति में सुधार होने तक राहत कार्य जारी रखा। स्वामी सुबोधानन्द कहा करते थे भगवान उसी की मदद करते हैं जो गरीबों और जरूरमंदो की मदद करता है। रामकृष्ण ने कहा जो ’यहाँ आयेंगे उन्हें मुक्ति मिलेगी; वे बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाएंगे।

उन्हें बेलूर मठ सबसे ज्यादा पसंद था अंत में वे क्षय रोग से पीड़ित हो गए। 2 दिसंबर 1932 को अपने निधन तक वे पूरी तरह से सचेत और हसमुख थे। अपने निधन से एक रात पहले, उन्होंने कहा मेरी आखिरी प्रार्थना है कि प्रभु का आशीर्वाद हमेशा रामकृष्ण संघ पर बना रहे। कार्यक्रम के अन्त में भक्तों को प्रसाद वितरण किया गया।

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