भगवान श्रीकृष्ण नाम स्मरण से भीष्म पितामह को मिला मोक्ष – स्वामी अप्रमेय प्रपन्नाचार्य महाराज
श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन भक्तों ने किया रसपान

रामनगर,बाराबंकी। लखनऊ, भारत प्रकाश न्यूज़। श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन भक्तों ने रसपान किया।
शुक्रवार को रामनगर के धमेड़ी मोहल्ला में चल रहे श्रीमद् भागवत कथा के दौरान कथा वाचक अप्रमेय प्रपन्नाचार्य महाराज भगवान की महिमा प्रसंग सुनाते हुए कहा कि भगवान श्रीकृष्ण के नाम मात्र स्मरण करने से प्राणी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
बाणो की शैय्या पर लेते हुए भीष्म पितामह ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया की तो वह परम तत्व को प्राप्त हो गए। लक्ष्मी नारायण शुक्ला के आवास पर श्रीमद् भागवत कथा प्रसंग के दौरान वैष्णवाचार्य स्वामी अप्रमेय प्रपन्नाचार्य महाराज ने कहा कि भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध में घायल होने के पश्चात बाणो की शैय्या पर लेटे हुए हैं।
उस समय उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के मनोरम छटा की याद आती है और वह एकाएक उनकी स्तुति करने लगते हैं। इस दौरान भीष्म पितामह बोले – जो निज आनन्द में मग्न है, और कभी विहार (लीला) करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार करता है,तब उससे संसार का प्रवाह चलता है।
ऐसे भूमास्वरूप, यदुश्रेष्ठ भगवान् कृष्ण में मैंने अपनी तृष्णारहित बुद्धि समर्पित कर दी है। त्रिभुवनसुन्दर तमालवर्ण सूर्यकिरणों के समान उज्ज्वल और पवित्र वस्त्र धारण करने वाले तथा जिनका मुखकमल अलकावली से आवृत है, उन अर्जुन-सखा में मेरी निष्काम प्रीति हो युद्ध में
घोड़ों की टाप से उड़ी हुई रज से धूसरित तथा चारों ओर छिटकी हुई अलकोंवाले, परिश्रमजन्य पसीने की बूँदों से सुशोभित मुखवाले और मेरे तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण हुई त्वचा वाले, सुन्दर कवचधारी कृष्ण में मेरी आत्मा प्रवेश करे। सखा के वचनों को सुनकर शीघ्र ही अपनी और विपक्षियों की सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके अपने भृकुटि-विलास से विपक्षी सैनिकों की
आयु को हरने वाले पार्थ-सखा में मेरी प्रीति हो। दूर खड़ी सेना के मुख का निरीक्षण करके स्वजन-वध में दोषबुद्धि से निवृत्त हुए अर्जुन की कुमति को जिसने आत्मविद्या (गीता-ज्ञान) द्वारा हर लिया था, उस परमपुरुष (कृष्ण) के चरणों में मेरी प्रीति हो।मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिये,
अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर रथ से उतर पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने दौड़ता है उसी तरह चक्र को लेकर पृथ्वी कँपाते हुए कृष्ण (मेरी ओर) दौड़े, उस समय शीघ्रता के कारण उनका दुपट्टा (पृथ्वी को सान्त्वना देने के लिये) गिर पड़ा था। मुझ आतातायी के तीक्ष्ण बाणों से विदीर्ण होकर, फटे हुए कवच वाले, घाव और रुधिर(रक्त) से सने हुए, जो भगवान् मुकुन्द मुझे हठ पूर्वक मारने को दौड़े, वे मेरी गति हों।
अर्जुनके रथ में चाबुक लेकर और घोड़ों की लगाम पकड़कर बैठे हुए (अहा!) ऐसी शोभा से दर्शनीय भगवान् में मुझ मरणाकांक्षी की प्रीति हो; जिनका दर्शन करके इस युद्ध में मरे हुए वीर भगवत्-स्वरूप को प्राप्त हो गये हैं।
ललित गति, विलास, मनोहर हास्य और प्रेमपूर्ण निरीक्षण के समय बहुत मान धारण करने वाली तथा (कृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर) उन्मत्त होकर भगवत् चरित्रों का अनुकरण करने वाली गोपवधुएँ जिनके स्वरूप को निश्चय ही प्राप्त हो गयीं। उन्होंने कहा कि
युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में, मुनिगण और नृपतियों के समक्ष जिनकी अग्रपूजा हुई, अहो! ऐसे दर्शनीय भगवान् ही ये मेरी दृष्टिके सामने प्रकट हुए हैं।
मैं भेद और मोह से रहित होकर अपने ही रचे हुए प्रत्येक शरीरधारी के हृदय में स्थित सूर्य की तरह एक होते हुए भी नाना दृष्टि से अनेक रूप दीखने वाले और जन्मरहित इस परमात्मा (कृष्ण) की शरण में जाता हूँ।
इस प्रकार से भीष्म पितामह भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर उनकी आत्मा में विलीन हो गए। इस दौरान उन्होंने वरदान में माता कुंती द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से दुख मांगे जाने की कथा का मार्मिक ढंग से वर्णन किया साथ-साथ राजा परीक्षित की गर्भ में रक्षा करने की कथा का बोध कराया।



