उत्तर प्रदेशजीवनशैली

तुलसी, कबीर ने जिस भाषा में चिंतन किया आज वही प्रासंगिक बनी 

इसी संस्कृति में कबीर, रैदास, नानक बुद्ध संतों का हुआ जन्म 

 

हमारी संस्कृति ही देश के युवाओं का मार्ग करती प्रशस्त 

प्रबुद्धजनों ने हिन्दी मातृ भाषा को आत्मसात करने पर दिया जोर 

चन्द्र प्रकाश सिंह 

लखनऊ, भारत प्रकाश न्यूज़। राजधानी के बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्व विद्यालय में उत्तर प्रदेश समाज विज्ञान अकादमी द्वारा एक दिवसीय हिन्दी भाषा का बढ़ावा देने के लिए संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

शुक्रवार को भारतीय विज्ञान अकादमी प्रयागराज के तत्वाधान में व मानवाधिकार बीबीएयू के सहयोग से हमारी भाषा, हमारा ज्ञान -विज्ञान, हमारे लोग और हमारा प्रदेश विषय पर शोध पर आधारित संस्थान के पृथ्वी एवं पर्यावरण विद्यापीठ सभागार में प्रबुद्ध जनों ने हिन्दी भाषा शोध पर अपने अपने विचार मंच पर साझा किए । जिसमें कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. संदीप कुमार, मुख्य अतिथि संस्थान कुलपति प्रो एनएमपी वर्मा,विशिष्ट अतिथि डॉ. एनएन मेहरोत्रा सेवा निवृत सीडीआरआई, विशिष्ट अतिथि अर्जुनदेव भारती संयुक्त सचिव उप्र शासन, विशिष्ट अतिथि प्रो राणा प्रताप सिंह सेवा निवृत बीबीएयू, विशिष्ट अतिथि डॉ. शैला चंद्रा सेवा निवृत बीरबल साहनी पूरा विज्ञान, आयोजक प्रो. शशि कुमार प्रोफ़ेसर मानवाधिकार विभाग बीबीएयू, उप्र समाज विज्ञान संयोजक डॉ. मनीराम सिंह प्रोफ़ेसर तकमिल उत्तीब यूनानी कॉलेज एवं चिकित्सालय एवं मंच का संचालन डॉ राशिदा अतहर एसोसिएट प्रो मानवाधिकार बीबीएयू मौजूद रही।

वहीं अर्जुनदेव भारती ने हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने के लिए सुधार और भाषा के प्रति निष्ठा भाव की अलख जगाते हुए कहा कि अभी भी कई ऐसे क्षेत्रों में हिन्दी भाषा को शामिल करना भी चुनौती से कम नहीं है। यहाँ तक कि अभी भी देश में कई ऐसे प्रदेश हैं जहाँ पर हिन्दी को प्रमुखता नहीं दी जा रही है। उन्होंने कंप्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उदाहरण देते हुए कहा कि यहाँ भी हिन्दी भाषा का प्रयोग करना मुश्किल भरा है। इसके लिए हमें हिन्दी भाषा के प्रति क्रांति लानी होगी तभी संभव हो सकेगा। अर्जुनदेव ने प्रदेश के लोगों की धारणा को दर्शाते हुए कहा कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला कराने के लिए अधिकांश सिफारिश करने के लिए लोगों ने कहा,लेकिन अभी तक कोई हिन्दी व संस्कृत मीडियम स्कूल में बच्चे का दाखिला कराने की सिफारिश करने की बात नहीं की। यही हमारे समाज की मूलभूत धारणा को दर्शाता है जिससे हम आगे बढ़ने में कामयाब नहीं हो पा रहें हैं। उन्होंने कहा की ऐसी धारणा के लिए हम सभी को हिन्दी मातृ भाषा को आत्मसात करना पड़ेगा तभी संभव होगा।

उन्होंने श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित राग दरबारी उपन्यास और दारा शिकोह का जिक्र करते हुए कहा कि परंपरागत लेखन ठीक होने से हिन्दी साहित्य को आगे बढ़ाया है। हिन्दी भाषा अनुमोदन होगा तभी संभव है। वैश्विक स्तर एक भारतीयता के रूप में दिखाकर पोटेंशियल हासिल किया। साथ ही इन्होने राजनीतिक लड़ाई भी लड़ी है। समाज में ऐसी कई चुनौतियो का सामना करना पड़ता हैं जो दिखाई नहीं देती हैं । बदलाव होने पर कई चुनौतियाँ आती हैं उसका सामना करना ही पड़ता है उससे हटना नहीं है डटकर सामना करना है। उन्होने कहा कि हमारी परिवार वही संस्कृतिक परंपरा को लेकर आगे बढ़ते हैं और गर्व महसूस करते हैं। हमारी भाषा ही हमारी संस्कृति है। हमारी संस्कृति सापेक्षता नहीं निरपेक्ष है।अपनी जैविक हमारी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है और रहेगी।

जहाँ संस्कृति होगी वहीं कबीर, रैदास, बुद्ध, नानक, तुलसीदास जैसे महान संत पैदा होते रहेंगे। अर्जुन देव ने मंच पर बैठे प्रबुद्ध जीवियों से हॉट स्पॉट कनेक्टिविटी द्वारा आपके समक्ष यह जानकारी साझा कर सका हूँ। जिसकी इनसाइट डेवलप होती है वोह सब कुछ हासिल कर सकता है। ऐसा कहते ही सभागार में तालियां गूंजने लगी। इसी क्रम में डॉ मनीराम सिंह ने उप्र समाज विज्ञान अकादमी का उदेश्य बताते हुए कहा कि प्रकृति, मानव, समाज के बीच परस्पर समन्वय स्थापित करने के लिए शोध कार्य कर रही है। उन्होंने मातृ भूमि से जन्मे महान संतों का जिक्र करते हुए गोस्वामी तुलसीदास एवं कबीरदास के बारे में बताया कि इन्होने जिस भाषा में सोचा विचार किया और उसी भाषा में आज लिपिबद्ध होकर प्रासंगिक हो गया। इसलिए हम जिस भाषा में सोचते हैं उसी भाषा का प्रयोग करने से बुलंदियों को हासिल कर सकते हैं। साथ ही उन्होंने ऐसे दुनिया के कई देशों का जिक्र करते हुए उदाहरण प्रस्तुत किए। डॉ सिंह ने कहा कि भाषा हमारे ज्ञान-विज्ञान का मूलभूत आधार है। मूलत: हम जिस भाषा में सोचते-समझते हैं उसी भाषा में लिपिबद्ध करने के अपने अलग मायने होते हैं। फिर भी जब हम अपनी सोच की भाषा को किसी दूसरी लिपिबद्ध करते हैं तो उसके मूल स्वरूप भाव में कुछ कमी आ जाती है।

यह कमी हमारी सोचने की भाषा के विरूद्ध दूसरी भाषा की लिपिबद्ध करने के बराबर होती है। इसे हम यहां आर्किमिडीज के द्वव विस्थापन के सिद्धान्त से समझ सकते हैं। जिसमें कहा गया है कि “जब किसी वस्तु को किसी द्रव में पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से डुबोया जाता है तो उस वस्तु के भार में कुछ कमी आ जाती है और वह कमी उस वस्तु द्वारा हटाए गए द्रव के भार के बराबर होती है। डॉ सिंह ने कहा कि सांकेतिक भाषा मुख्यतः वनस्पति, सूक्ष्म जीव-जन्तु सांकेतिक भाषा का प्रयोग करते हैं। मानव भी अपनी विलक्षण प्रतिभा को निर्जीव वस्तुओं में डाल कर सांकेतिक भाषा का आदि काल से ही प्रयोग करता चला आ रहा है। रंगों की भी अपनी एक भाषा होती है। सूक्ष्म जीव-जन्तुओं के पद चिन्हों से उनके घर का पता मिलता है। वनस्पति विज्ञानी पेड़-पौधों की भाषा समझते हैं। हकीम व वैद्य आदि औषधीय पादप की भाषा से ही उसके गुण-दोष का पता लगाते हैं। किसान अपनी फसल व खेत,जमीन की भाषा भलीभांति समझते हैं। इसी प्रकार जीव-जन्तुओं तथा मानव की मनोदशा व उसकी इन्द्रियों से भाषा को आसानी से समझा जा सकता है। अमीरी व गरीबी की भाषा समझने के लिए उनके बैंक बैलेन्स व घर-द्वार को देखने की जरूरत नहीं है।भाषा और लिपि – भाषा व्यक्तियों के मध्य संवाद का माध्यम है तथा लिपि किसी विचार, अभिव्यक्ति अथवा कही गयी बात को चिर स्थायित्व प्रदान करती है। डॉ मनीराम सिंह ने कहा कि जब हम किसी बात को कहते हैं तो पहले वह बात हमारे मन में आती है, हमारे कहने से मन उचित और अनुचित का निर्णय ले लेता है तथा सही वक्त का इंतजार करता है।

सही हम अपनी बात व विचार को अपनी भाषा में कह देते हैं। इसी क्रम में डॉ मनीराम सिंह द्वारा सम्पादित ऋतुओ पर आधारित जन स्वास्थ्य चेतना पत्रिका और संगोष्ठी स्मारिका एवं सार का विमोचन किया गया। इसके पश्चात् उन्होंने मंच पर उपस्थित सभी अतिथियों का धन्यवाद देते हुए आभार जताया।

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