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रामकृष्ण मठ में. मनाई तीर्थंकर भगवान महावीर की जयंती

स्वामी मुक्तिनाथानन्द ने महावीर जयंती की बधाई

 

लखनऊ, भारत प्रकाश न्यूज़। राजधानी में भगवान महावीर की जयंती मनाई गई। गुरुवार को निराला नगर स्थित रामकृष्ण मठ में तीर्थंकर भगवान महावीर की जयंती मनाई गयी। सुबह शंखनाद व मंगल आरती के बाद वैदिक मंत्रोच्चारण, भागवत गीता का पाठ स्वामी इष्टकृपानन्द के नेतृत्व में कराया गया। वहीं मठ प्रमुख स्वामी मुक्तिनाथानन्द महाराज द्वारा (ऑनलाइन) सत् प्रसंग किया।संध्यारति के पश्चात प्रमदादास मित्रा द्वारा रचित ‘श्रीरामकृष्ण षटकम्’ का पाठ किया। इसके पश्चात राहुल अवस्थी द्वारा मनमोहक भक्तिगीतों की प्रस्तुति और तबले पर उनका संगत लखनऊ के शुभम राज ने दिया। इस अवसर पर स्वामी मुक्तिनाथानन्द ने जैन सिद्धांतो में विश्वास रखने वाले समस्त जैन समाज और सम्पूर्ण विश्व को महावीर जयंती की बधाई दी। साथ ही स्वामी द्वारा ‘‘चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का महान जीवन और जैन धर्म का सार’’ विषय पर प्रवचन देते हुये बताया कि हर साल चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को महावीर जयंती मनाई जाती है। भगवान के रूप में प्रकट होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इन्द्र के आसन कम्पयमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान का सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इंद्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं।

भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली गणतंत्र कुंडलपुर (बिहार) में पिता राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला की तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को वर्द्धमान (भगवान महावीर) का जन्म हुआ था। यही वर्द्धमान बाद में स्वामी महावीर बने। वर्तमान में वैशाली (बिहार) के वासोकुण्ड को यह स्थान माना जाता है। इनका जन्म 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के 188वर्ष बाद हुआ था।

महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गॉव में दस दिनो तक उत्सव मनाया गया। राजा सिद्धार्थ ने अपने सभी मित्रो, भाई, बंधुओ को आमंत्रित किया, तथा उनका खूब सत्कार किया गया। राजा सिद्धार्थ का कहना था, कि जब से महावीर स्वामी का जन्म उनके परिवार मे हुआ है, तब से उनके धन धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनो में बहुत वृद्वी हुई है। उन्होने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम वर्द्धमान रखा।

वर्द्धमान का बचपन राजमहल में बीता। वे बड़े निर्भीक थे। आठ बरस के हुए, तो उन्हें पढ़ाने, शिक्षा देने, धनुष आदि चलाना सिखाने के लिए शिल्प शाला में भेजा गया।श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि वर्द्धमान ने यशोदा से विवाह किया था।

कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे। शुरूआत से ही उन्हें संसार के भोगो में कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता पिता की इच्छा के कारण उन्होने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया तथा उनके साथ उनकी एक पुत्री हुई। जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया। उन्होंने बताया कि दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि वर्द्धमान का विवाह हुआ ही नहीं था। वे बाल ब्रह्मचारी थे।

राजकुमार वर्द्धमान के माता-पिता जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जो महावीर से 250वर्ष पूर्व हुए थे, के अनुयायी थे। महावीर की 28 वर्ष की उम्र में इनके माता-पिता का देहान्त हो गया। ज्येष्ठ बंधु नंदिवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे। बाद में तीस बरस की उम्र में वर्द्धमान ने श्रामणी दीक्षा ली। वे ’समण’ बन गए।

उनके शरीर पर परिग्रह के नाम पर एक लँगोटी भी नहीं थी। अधिकांश समय वे ध्यान में ही मग्न रहते। हाथ में ही भोजन कर लेते, गृहस्थों से कोई चीज नहीं माँगते थे। धीरे-धीरे उन्होंने पूर्ण आत्मसाधना प्राप्त कर ली।

वर्द्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले। अन्त में जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे केवल्यज्ञान प्राप्त हुआ।

कैवल्यज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभाँति समझ सके।

उनके उपदेश चारों ओर फैलने लगे। बडे-बडे राजा महावीर स्वामी के अनुयायी बने उनमें से बिम्बिसार भी एक थे (मगध साम्राज्य का सम्राट था)

30 वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ महात्माओं में शुमार हुए। स्वामी ने प्रवचन देते हुए कहा कि स्वामी विवेकानन्द ने बताया था कि जैन नैतिक सिद्धांतों ने भारतीय समाज को और अधिक पतन से कैसे बचाया। जैन धर्म के बारे में उनके विचार। भारतीय समाज को सर्वव्यापी कर्मकांडीय अनुष्ठानों के बोझ से कौन बचा सकता था। जिसमें पशु और अन्य बलि शामिल थे। जिसने इसके जीवन को लगभग कुचल दिया, सिवाय जैन क्रांति के, जिसने केवल पवित्र नैतिकता और दार्शनिक सत्य पर अपना दृढ़ रुख अपनाया। जैन पहले महान तपस्वी थे और उन्होंने कुछ महान कार्य किए। ‘किसी को चोट न पहुँचाएँ और जितना हो सके सभी का भला करें, और यही नैतिकता और आचार है, और यही सारा काम है, और बाकी सब बकवास है-पुजारियों ने इसे बनाया है। इसे सब फेंक दो।’ और फिर वे काम पर लग गए और इस एक सिद्धांत को पूरी तरह से विस्तृत किया, और यह सबसे अद्भुत आदर्श हैः हम जिसे नैतिकता कहते हैं, वे केवल उस एक महान सिद्धांत से लाते हैं, जो गैर-चोट पहुँचाना और अच्छा करना है।” “बौद्ध या जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते; बल्कि उनके धर्म की पूरी शक्ति हर धर्म में महान केंद्रीय सत्य की ओर निर्देशित होती है, मनुष्य से ईश्वर का विकास करना। उन्होंने पिता को नहीं देखा है, लेकिन उन्होंने पुत्र को देखा है। और जिसने पुत्र को देखा है, उसने पिता को भी देखा है।”

महावीर का जन्म बुद्ध से थोड़ा पहले हुआ था। जबकि गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे, महावीर ने जैन धर्म की स्थापना नहीं की। चक्रवर्ती भरत के पिता सम्राट ऋषभ (आदिनाथ) 8190 ईसा पूर्व में जैन धर्म के संस्थापक थे, और वे पहले तीर्थंकर थे। जैन धर्म भगवान महावीर से बहुत पहले अस्तित्व में था, और उनकी शिक्षाएँ उनके पूर्ववर्तियों की शिक्षाओं पर आधारित थीं।

भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका, सबको लेकर चतुर्विध संघ की स्थापना की। उन्होंने कहा- जो जिस अधिकार का हो, वह उसी वर्ग में आकर सम्यक्त्व पाने के लिए आगे बढ़े। जीवन का लक्ष्य है समता पाना। धीरे-धीरे संघ उन्नति करने लगा। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया। स्वामी ने बताया कि जय जिनेन्द्र एक प्रख्यात अभिवादन है। यह मुख्य रूप से जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ होता है “जिनेन्द्र भगवान (तीर्थंकर) को नमस्कार“। यह दो संस्कृत अक्षरों के मेल से बना हैः जय और जिनेन्द्र। जय शब्द जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्रशंसा के लिए उपयोग किया जाता है। जिनेन्द्र उन आत्माओं के लिए प्रयोग किया जाता है जिन्होंने अपने मन, वचन और काया को जीत लिया और केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।

जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्गल कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाता है और लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।

भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 इसवीं में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। प्रवचन के उपरान्त सभी भक्तों को प्रसाद वितरण कर समापन हुआ।

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