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सैनिटरी पैड्स में प्लास्टिक रसायन, पर्यावरण के लिए खतरा – डॉ. सुजाता देव

माहवारी स्वच्छता पर हुए ताज़ा सर्वे में निकली भ्रांतियां 

 

लखनऊ,भारत प्रकाश न्यूज़। समाज में माहवारी स्वच्छता सर्वे में कई भ्रांतियां पाई गई। हाल ही क्वीन मेरी अस्पताल द्वारा ग्रामीण एवं शहरी अविवाहित किशोरियों एवं युवतियों पर किए गए सर्वे में माहवारी स्वच्छता को लेकर चिंताजनक पहलू सामने आए हैं। जहां सर्वे रिपोर्ट एक ओर जागरूकता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर सुविधाओं की कमी, सामाजिक व सांस्कृतिक रुकावटें और गलत धारणाएं अब भी बड़ी चुनौती समाज में बनी हुई हैं।

यह सर्वे क्वीन मेरी अस्पताल की वरिष्ठ महिला रोग विशेषज्ञ एवं सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस फॉर एडोलसेंट हेल्थ की नोडल डॉ. सुजाता देव तथा काउंसलर सौम्या सिंह के दिशा निर्देशन में किया गया। मंगलवार को डॉ. सुजाता देव विस्तार से बताया कि “ सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस फॉर एडोलसेंट हेल्थ पर प्रदेश के विभिन्न जनपदों से आने वाली अविवाहित किशोरियों एवं युवतियों को इस सर्वे में शामिल किया गया।

सर्वे में सामने आया कि ग्रामीण क्षेत्र की किशोरियाँ अब मेंस्ट्रुअल कप जैसे पर्यावरण-अनुकूल विकल्पों के बारे में जान रही हैं। यह बदलाव उम्मीद की किरण दिखाता है। इसके अलावा “सैनिटरी पैड्स में प्लास्टिक व रसायन होते हैं। इन्हें जलाने से निकलने वाला धुआं न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि सांस की बीमारियों का कारण भी बन सकता है।

सर्वे में सहायक विशेषज्ञ डॉ. प्रतिभा कुमारी ने बताया कि माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसे अशुद्ध मानना एक सामाजिक भ्रांति है, जिसे बदलने की ज़रूरत है। माहवारी स्वच्छता को लेकर सही जानकारी लोगों तक पहुंचाना बहुत जरूरी है क्योंकि स्वच्छता के अभाव में कई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता हैं।

जानें क्या कहती है सर्वे रिपोर्ट..

47.5 फीसदी किशोरियों को पहली माहवारी से पहले इसकी जानकारी थी, जबकि 52.5 फीसदी को कोई जानकारी नहीं थी।

73 फीसदी किशोरियाँ डिस्पोजेबल सैनिटरी पैड का उपयोग करती हैं। 21.5 फीसदी लड़कियां व युवतियाँ कपडे के पैड का इस्तेमाल करती हैं। सिर्फ 5.5 फीसदी ही मेंस्ट्रुअल कप का प्रयोग करती हैं।

स्वास्थ्य समस्याओ में..

53 फीसदी रैशेज, खुजली और दाने की शिकायतें होती हैं, जिनमें से 37.5 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र से शामिल हैं। 44.5 फीसदी के पास इस्तेमाल किए गए पैड के निस्तारण की उचित व्यवस्था नहीं होती है। 49.5 फीसदी को ही साफ व निजी शौचालय उपलब्ध हैं। 59.5 फीसदी किशोरियाँ माहवारी के दौरान सामाजिक व धार्मिक प्रतिबंधों का सामना करती हैं। उन्हें रसोई, पूजा या सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाता है। 65.5 फीसदी किशोरियाँ हर बार पैड बदलते समय जननांगों की सफाई करती हैं। 9 फीसदी किशोरियाँ इसे कभी साफ नहीं करतीं।

57.5 फीसदी केवल पानी का उपयोग करती हैं। 28 फीसदी एंटीसेप्टिक और 14.5 फीसदी साबुन-पानी का।73 फीसदी के लिए सैनिटरी उत्पाद उपलब्ध और सस्ते हैं, जबकि 27 फीसदी को अब भी खरीदने में कठिनाई होती है। 72 फीसदी पैड को कागज में लपेटकर फेंकती हैं। 8.5 फीसदी इन्हें जला देती हैं, 14.5 फीसदी ज़मीन में गाड़ती हैं और 5 फीसदी स्कूल शौचालय में फ्लश कर देती हैं। इसके अलावा

74 फीसदी किशोरियाँ माहवारी पर खुलकर बात करती हैं, जबकि 19.5 फीसदी इसे शर्म और संकोच से छुपा लेती हैं। 59 फीसदी किशोरियाँ माहवारी के दौरान स्कूल या कार्यस्थल नहीं जातीं। स्वच्छ व निजी टॉयलेट की अनुपलब्धता इसके पीछे बड़ी वजह है।

 माहवारी पर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का सुझाव..

माहवारी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए,इसेस्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि हर लड़की को वैज्ञानिक जानकारी मिल सके। सस्ते व टिकाऊ उत्पादों (जैसे मेंस्ट्रुअल कप) के प्रचार के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएं। स्कूल, कार्यालय व सार्वजनिक स्थलों पर स्वच्छ शौचालय, पानी, डस्टबिन और इंसिनरेटर अनिवार्य हों।

समुदायों में संवाद और वर्कशॉप हों, जिससे शर्म व संकोच की जगह वैज्ञानिक सोच स्थापित हो सके। गरीब महिलाओं को मुफ्त या रियायती सैनिटरी उत्पाद उपलब्ध कराए जाएं।उपयोग किए गए उत्पादों के लिए बायोडिग्रेडेबल विकल्प और सुरक्षित निस्तारण पर बल दिया जाए।

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